सुमेरू इंफ्रास्टक्चर का जारी है नदी की भूमि पर अतिक्रमण, की जा रही प्लाटिंग बनाये जा रहे फ्लैट


देहरादून। नरेन्द्र मोदी ने देश के प्रधानमंत्री बनने से पूर्व साल 2014 में लोकसभा चुनाव के अपने अभियान में देश की जनता से वोटों की खातिर बड़े-बड़े वादे किए थे। वहीं केंद्र में भाजपा की सरकार बनने पर मोदी सरकार ने देश के भीतर क्रांतिकारी बदलाव लाने के दावे भी किये थे जिनमें गंगा सफाई अभियान “नमामि गंगे” समेत अन्य नदियों की स्थिति को सुधारने की बातें कही गयी थी। किन्तु चार वर्ष का समय व्यतीत हो जाने के बावजूद भी केंद्र सरकार नदियों की हालत सुधारने को लेकर कोई बड़ा कदम नहीं उठा पायी।
यदि बात उत्तराखंड की ही करें तो उत्तराखण्ड के पृथक राज्य के रूप में अस्तित्व में आने के बाद से ही यहां अतिक्रमण का सिलसिला शुरू हो गया था जो आजतलक बदस्तूर जारी है। आलम ये है कि खेती की जमीनों और जंगलों को कब्जाने के बाद अब भू-माफिया नदियों को भी नहीं छोड़ रहे हैं। ऐसे ही नदी की भूमि पर अतिक्रमण के एक मामले में बीते दिनों नैनीताल उच्च न्यायालय द्वारा एक जनहित याचिका को खारिज कर दिया गया। जिसकेे बाद याचिकाकर्ता ने देश की सबसे बड़ी अदालत उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। जिसके बाद उक्त मामले में याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीमकोर्ट ने राज्य सरकार व अतिक्रमणकारियों को नोटिस जारी किया है।
गौतलब है कि समाजसेवी आजाद अली द्वारा कुछ समय पूर्व हाईकोर्ट में सुमेरु इनफ्रास्ट्रक्चर नामक कंपनी व राज्य सरकार को पार्टी बनाकर जनहित याचिका 69/2017 दाखिल की गयी थी। उक्त याचिका में कहा गया था कि, नदी की भूमि को सुमेरु इनफ्रास्ट्रक्चर के एमडी राजेश जैन/राजीव जैन पुत्र नरेंद्र कुमार जैन उर्फ नंदी जैन द्वारा नदी की भूमि को अतिक्रमण कर अपार्टमेंट व प्लोटिंग की जा रही थी। जिस पर उच्च न्यायलय नैनीताल ने संज्ञान लेते हुए राज्य सरकार से नदी की भूमि के खसरा न० 1862 की विस्तृत रिपोर्ट दाखिल करने को कहा था।
याचिकाकर्ता के अनुसार, जिलाधिकारी देहरादून ने नदी के खसरा न० 1862 की गोल-मोल रिपोर्ट बनाकर व नदी के खसरा नम्बर पर भिन्न-भिन्न लोगों को जमीन का भूमिधारी बताते हुए न्यायालय को रिपोर्ट पेश की, जबकि जिलाधिकारी देहरादून को यह स्पष्ट करना चाहिए था कि, नदी की भूमि किसी भी व्यक्ति या संस्था को आवंटित नहीं की जा सकती। जो नदी की भूमि में पट्टेदार के रूप में वर्तमान में नाम है वो गलत है क्योंकि, खसरा नम्बर 1862 का पूरा रकबा पूर्व में नदी का ही था, जो जमीदारा एक्ट के अनुसार बदल नहीं सकता। उन्होंने आरोप लगाते हुए कहा कि, इससे राजस्व के ही कई अधिकारी व कर्मचारी घोटाले की जद में आ जाते। इसलिए उनको बचाते हुए जिलाधिकारी देहरादून ने उच्च न्यायालय को गुमराह करते हुए गलत रिपोर्ट प्रेषित की। उक्त रिपोर्ट के आधार पर ही उच्च न्यायालय नैनीताल द्वारा जनहित याचिका को खारिज कर दिया गया।
इस मामले में उच्च न्यायालय द्वारा जनहित याचिका को खारिज करने के विरुद्ध याचिकाकर्ता आजाद अली ने सुप्रीमकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। सर्वोच्च न्यायालय में अदालत न० 4 (कोर्ट न० 4) में उच्च न्यायालय द्वारा किए गए आदेश पर सुनवाई हुई। नदी की भूमि में अतिक्रमण का मामला होने के कारण उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध सुमेरु इनफ्रास्ट्रक्चर के एम०डी० राजेश जैन/राजीव जैन पुत्र नरेंद्र कुमार जैन उर्फ नंदी जैन, राज्य सरकार व जनहित याचिकाकर्ता द्वारा पूर्व मे जितने भी लोगों को विपक्षी पार्टी बनाया गया था, उन सभी को नोटिस जारी कर जवाब दाखिल करने व हाजिर होने को कहा गया।
इस ताज़ा प्रकरण से साफ जाहिर होता है कि केंद्र और राज्य की सरकारें हमारे जल, जंगल और ज़मीनों के अस्तित्व को बचाने के लिये कितने गंभीर हैं। सुमेरु इनफ्रास्ट्रक्चर द्वारा शिमला बाईपास के निकट आसन नदी की भूमि पर अतिक्रमण कर इमारत खड़ी कर दी गई और सरकार के नुमाइंदे आंखे मूंदे रहे। दरअसल ये अकेला ऐसा मामला नहीं है, उत्तराखंड में ऐसे कई मामले हैं जिनमें राज्य सरकार की नाक के नीचे भूमाफिया और बिल्डर नदियों की भूमि को कब्जाने का खेल खुलकर खेल रहे हैं और कहीं न कहीं इन भूमाफियाओं को सरकारी संरक्षण भी प्राप्त होता नजर आ रहा है।
ऐसे में सवाल ये उठता है कि ऐसी परिस्थितियों में सरकार नदियों के अस्तित्व को कैसे बचाये रख सकती है। वहीं याचिकाकर्ता आज़ाद अली की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीमकोर्ट ने अगर सुमेरु इनफ्रास्ट्रक्चर के खिलाफ ही फैसला सुना दिया तो ऐसे में कंपनी के मालिक क्या उन लोगों की रकम वापिस करेंगे जिन्होंने अपनी जिंदगीभर की जमापूंजी उनके इस प्रोजेक्ट में फ्लैट ख़रीदकर लगा दी। या फिर सुमेरु इनफ्रास्ट्रक्चर के स्वामी भी विजय माल्या और नीरव मोदी की ही तरह चुपचाप देश से फुर्र हो जाएंगे?

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