'मेक इन इंडिया', लेकिन देश की रक्षा से समझौता नहीं


नई दिल्ली। भारत में इसी सदी में ऐसा शक्तिशाली देश बन सकने की क्षमता है जो विश्वस्तर पर अहम भूमिका अदा कर सके। इसलिए रक्षा उपकरणों व हथियारों के लिए हमें निर्यात का सहारा लेना पड़ता है। सरकार ने डिफेंस प्रोक्योरमेंट पॉलिसी के तहत ऐसे कदम उठाए हैं जिससे अगले 10 सालों में भारत अपनी जरूरत का ज्यादातर रक्षा साजोसामान बनाने में सक्षम होगा। साथ ही हम इन उपकरणों व हथियारों का निर्यात कर आय भी अर्जित कर सकेंगे। इसमें पहली प्राथमिकता ‘मेक इन इंडिया’ है यानि हथियारों का पूरी तरह से भारत में उत्पादन। दूसरी प्राथमिकता ‘बाय एंड मेक’ है।
 यानि उपकरण या हथियार के साथ उसकी तकनीक भी आयात की जाएगी ताकि आगे जरूरत पड़ने पर भारत में ही इसका उत्पादन किया जा सके। फ्रांस से राफेल की खरीद में यह प्रक्रिया अपनाई जा रही है। वहीं, बाय यानी आयात’ को सबसे आखिरी प्राथमिकता पर रखा गया है। इसमें तत्काल आवश्यकता वाले और वे उपकरण व हथियार खरीदे जाएंगे जिनके उत्पादन में अभी भारत तकनीकी रूप से उतना सक्षम नहीं है जितनी जरूरत है। पॉलिसी में निजी कंपनियों को भी मौका दिया जा रहा है कि वे उच्च तकनीक वाली विदेशी कंपनियों के साथ मिलकर उन्नत सैन्य उपकरण व हथियार बनाएं। इससे भारत में रोजगार तो मिलेगा ही, भविष्य में यह हथियारों को निर्यात कर मुनाफा कमाने की क्षमता भी हासिल कर लेगा।  
 विश्व के सबसे ताकतवर देश ज्यादातर सैन्य साजोसामान खुद बनाते हैं। हालांकि वे इनके कुछ पाट्र्स अलग-अलग देशों से इसलिए आयात करते हैं क्योंकि कुछ देश कुछ पाट्र्स बनाने में एक्सपर्ट हैं। लेकिन मुख्य तकनीक उनकी अपनी ही होती है। कोई भी ऐसा देश नहीं है जो किसी भी हथियार आदि का 100 प्रतिशत पार्ट अपने ही देश का लगाता हो। यूरोपीय संघ के छह देश मिलकर जब एक जहाज, गन आदि बनाते हैं तो यह तकनीकी रूप से कई गुना एडवांस होता है। बड़ी संख्या में उत्पादन से इसकी लागत भी कम हो जाती है। जैसे हवाई जहाज के टायर हम उस देश से लें जिसे इसमें महारत हासिल हो। क्योंकि इसके लिए अलग से यूनिट लगाना महंगा पड़ेगा।
 भारत में आजादी के बाद ऑर्डिनेंस फैक्ट्रियों और रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) की स्थापना की गई। इन कदमों ने हमें मिसाइल तकनीक, स्पेस रिसर्च, न्यूक्लियर रिसर्च आदि में काफी सक्षम बनाया है। भारत में कुछ हथियार, टैंक, गन, हवाई जहाज, शिप, पनडळ्ब्बी, गाड़ियां आदि विकसित की गई लेकिन उनकी जो क्षमता है वह उस स्तर की नहीं है जितने की हमें जरूरत है। दुश्मन की किसी भी चुनौती का सामना करने के लिए हमें खुद को सक्षम बनाना है। इसके लिए आयात का सहारा लेना ही पड़ता है। डीआरडीओ या ऑर्डिनेंस फैक्ट्री से हम कहते हैं कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली देशों का मुकाबला करने में सक्षम हथियार बनाइए। वे बनाते भी हैं। लेकिन ये हथियार अगर हमारे टेस्ट में फेल हो जाएं तो हम रिस्क नहीं ले सकते। इन पर इतना पैसा खर्च करने के बावजूद अगर हमें कम से कम दो दशक तक काम आने वाले हथियार न मिल सकें तो आयात करना ही विकल्प बचता है। अमेरिका में रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर बहुत पैसे खर्च किए जाते हैं इसलिए उनकी रक्षा तकनीक सबसे आगे है। हमें भी आरएंडडी में अभी बहुत इनवेस्ट करना होगा। जरूरत पड़े तो उच्च तकनीक का आयात भी किया जा सकता है।
 भारत की सैन्य क्षमता बढ़ाने के लिए केरल में एक डिफेंस इंडस्ट्रियल पार्क बनाने की योजना है जो दो तीन साल में तैयार हो जाएगा। इससे रक्षा के क्षेत्र में रिसर्च एंड डेवलपमेंट में काफी तेजी आएगी। भारत सरकार ऐसी कई सहूलियत दे रही है जिससे विदेशी कंपनियां भारत में आकर यहां की कंपनियों के साथ मिलकर उच्च तकनीक के हथियार उत्पादन का काम शुरू कर सकें। इससे भारत की सैन्य क्षमता तो बढ़ेगी ही, यहां के युवाओं को रोजगार भी मिलेगा। अमेरिका, फ्रांस जैसे देशों में रक्षा उपकरण बनाने वाली निजी कंपनियों के प्रोजेक्ट में सरकार रिसर्च एंड डेवलपमेंट लेवल से ही शामिल रहती है। इससे कंपनियों को भी विश्वास होता है कि उनके उत्पाद सरकार खरीदेगी। भारत में भी ऐसी पहल किए जाने की जरूरत है। वहीं, आइआइटी जैसे संस्थानों से निकले इंजीनियरिंग के छात्र डीआरडीओ आदि के साथ मिलकर काफी मददगार हो सकते हैं।

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